
क्या वाकई मंत्री सत्यपाल सिंह और राम माधव चर्च के षड्यंत्र का शिकार हो गये?
इस दुनिया में दो तरह के लोग पाए जाते हैं। पहले वो जो मानते हैं की ईश्वर हर चीज़ का कारण है और दुनिया उसी ने बनाई है। ये लोग ‘क्रियेशनिस्ट’ या ‘निर्माणवादी’ कहलाते हैं। दूसरे वो जो मानते हैं कि पूरा ब्रह्मांड परिवर्तनशील है। जैसा ये आज है वैसा पहले नहीं था, न आगे रहेगा। और ये ऐसा इसलिए नहीं कहते क्योंकि उन्हें निर्माणवादियों से कोई चिढ़ है बल्कि वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उनके पास इसके सुबूत हैं।
निर्माणवादी मानते हैं कि जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों की सारी प्रजातियां ईश्वर ने बनाई हैं और उनके निर्माण से लेकर वे अबतक वैसी ही हैं, उनमें कोई बदलाव नहीं होता। विश्व के अधिकांश ‘धर्म’ निर्माणवाद पर ही टिके हैं। ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में बताया गया है कि किस प्रकार गॉड ने 6 दिन में ब्रह्मांड का निर्माण किया और उसके बाद ‘गार्डन ऑफ ईडन’ में पहले पुरुष-स्त्री, ‘एडम-ईव’ को उतारा। इस्लाम में पहले स्त्री-पुरूष आदम और हौव्वा हैं। इसी प्रकार हिंदुओं में मनु और श्रद्धा की कहानी प्रचलित है।
यानि की दर्शन के आधार पर मानव विकास राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह को हम पहले वाली कैटेगरी (निर्माणवादी) में रख सकते हैं। सत्यपाल सिंह ने एकदम करारा तर्क दिया है डार्विन के सिद्धांत के खिलाफ। दरअसल दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियों में उन्होंने नहीं सुना कि हमारा कोई पूर्वज बंदर से इंसान बना हो इसलिए उन्होंने इस सिद्धांत को गलत बता दिया। हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि विदेशों में भी वैज्ञानिक 35 वर्ष पहले ही ये सिद्ध कर चुके हैं कि इस थ्योरी में सत्यता नहीं है।
तो क्या सत्यपाल सिंह एक ईसाई धार्मिक षड्यंत्र में फंस गये?
वैसे हम आपको बताते चलें कि ऐसे लोग केवल भारत मे पाए जाते हैं, ऐसा नही है। ‘यंग अर्थ क्रियेशनिस्ट्स’ मानते हैं कि गॉड ने पृथ्वी का निर्माण ज्यादा नहीं बस पिछले दस हज़ार साल पहले किया है। हालांकि वर्तमान वैज्ञानिक शोधों के अनुसार पृथ्वी की आयु 4 अरब 60 करोड़ वर्ष है। बहरहाल, टेक्सास में इन लोगों का शोध संस्थान-इंस्टिट्यूट फ़ॉर क्रिएशन रिसर्च बना हुआ है।
तो बैक टू प्वाइंट, जब सत्यपाल सिंह ने ये सब कहा, उसके बाद राम माधव ने भी एक लिंक ट्वीट किया। इस लिंक को खोलने पर एक आर्टिकल आता है जो कि 20 फरबरी 2006 को लिखा गया था। उसमें बताया गया है कि लगभग 500 वैज्ञानिकों ने एक ‘याचिका’ पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें कहा गया है कि उन्हें डार्विन के एवोल्यूशन यानि विकासवाद के सिद्धांत पर ‘संशय’ है। लेकिन राम माधव ने शायद संशय को ही नकारना मानकर सत्यपाल जी के समर्थन में ट्वीट किया होगा। उसी समय न्यूयॉर्क टाइम्स में इसी सम्बंध में एक लेख छपा था जिसमें कहा गया है कि इस याचिका पर हस्ताक्षरकर्ताओं में से 20 के इंटरव्यू लेने तथा लगभग एक दर्जन के पब्लिक स्टेटमेंट्स के आधार पर ये पता लगता है कि इनमें से ज्यादातर evangelical चर्च से सम्बधित हैं तथा एवोल्यूशन को लेकर उनके मन में संशय उनके धार्मिक विश्वासों के कारण बढ़ा। इन हस्ताक्षरकर्ताओं में केवल एक चौथाई ही जीव विज्ञान से संबंधित हैं बाकी अधिकतर भौतिक विज्ञानी, रसायनशास्त्री, इंजीनियर आदि हैं जिनका इस क्षेत्र से सीधा संबंध नहीं है। और सबसे बड़ी बात, विज्ञान की दुनिया में आपको किसी बात को काटने के लिए 500 या हज़ार की भीड़ की ज़रूरत नहीं पड़ती। आप केवल एक वैज्ञानिक सुबूतों के साथ तर्कपूर्ण थीसिस लिखकर पहले से चली आ रही मान्यता को काट सकते हैं।
जबकि हिंदू धर्म-ग्रंथ तो संशय करना सिखाते हैं
संशय करना, खोज करना गलत नहीं है, गलत है तो अपने अज्ञान को छुपाने के लिए अपने अंधविश्वासों का अकाट्य सिद्धांत के रूप में भ्रामक प्रचार करना और दोष दादा-दादी, नाना-नानी पर मढ़ना। हमारे प्राचीन ग्रंथों में संशय करने, प्रकृति को जानने-समझने की दृष्टि को विकसित करने के बारे में भी लिखा गया है-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥
(इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का अस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व। तब न अंतरिक्ष था न आकाश। इसे किसने ढंका था? यह कहाँ था? उस पल अगम अतल जल भी कहाँ था?)
यह ऋग्वेद के दसवें मंडल के 129 वें सूक्त -नासदीय सूक्त का पहला श्लोक है। हमारी संस्कृति में भी ज्ञान-विज्ञान की परम्परा रही है, लेकिन हर किसी चीज़ का श्रेय खुद ले लेने के लिए अजीब अजीब तर्क गढ़ना विश्व मे तो हमारी मज़ाक तो बनवाता ही है, हमारे देश मे वैज्ञानिक सोच के विकास में भी बाधा पहुंचता है।
इन सारी बातों से क्यों सत्यपाल सिंह पूरी तरह गलत सिद्ध होते हैं?
जहां तक बात एवोल्यूशन और उससे संबंधित सिद्धांत की तो सत्यपाल जी की बात पहली नज़र में ही खारिज़ हो जाती है। कैसे? सत्यपाल जी निर्माणवाद के करीब दिखाई पड़ते हैं। और निर्माणवादी मानते हैं कि ईश्वर ने जो प्रजातियों की विविधता बनाई थी वही अब तक विद्यमान है लेकिन जब खुदाई की जाती तो कुछ ऐसे जीव, जंतुओं, पौधों के भी जीवाश्म मिलते हैं जो आज नहीं पाए जाते।
ऐसा कैसे हुआ? साथ ही जीवाश्मों की परतों का अध्ययन करने पर एक पैटर्न भी मिलता है। इन्हीं साक्ष्यों, जीनोम रिसर्च, वर्तमान में पाए जाने वाले जीवों के अंगों में कार्य तथा संरचना के आधार पर समानता आदि के आधार पर विकासवादी कहते हैं कि मानव का क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) हुआ है और मानव ही नहीं प्रत्येक जीव का। डार्विन ने तो ये बताया कि एवोल्यूशन कैसे होता है? डार्विन से पहले लैमार्क का सिद्धांत आ चुका था जिसमें उन्होंने बताया था कि जीव, अपने जीवनकाल में जो भी विशेषताएं प्राप्त करते हैं उन्हें अगली पीढ़ी में ट्रांसफर कर देते हैं।
आज इस सिद्धांत को कोई नहीं मानता। डार्विन ने बताया कि प्रत्येक जीव की अगली पीढ़ी के सदस्यों में आपस मे लक्षणों में विविधता पाई जाती है, जिस सदस्य में ऐसे लक्षण अधिक हैं जो प्रकृति के साथ अनुकूलन में उसकी मदद करते हैं उसकी जीने की तथा संतानोत्पत्ति की प्रायिकता अधिक होती है अर्थात प्रकृति चयन करती है कि कौन आगे बढ़ेगा और कौन नहीं। इसी सिद्धांत को डार्विन का ‘प्राकृतिक चयन’ का सिद्धांत कहा जाता है। इसी के आधार पर कपियों (apes) तथा मनुष्यों का एक ही पूर्वज (common ancestor) होने की बात कही जाती है जो लगभग 70 लाख साल पहले रहा होगा।
डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को इसकी शुरुआत से ही चुनौतियां मिलती रही हैं और आज भी मिल रही हैं लेकिन नित नवीन खोजें इसे निरंतर मजबूती प्रदान करती जा रही हैं। अगर इसे गलत साबित ही करना है तो सत्यपाल जी को ऐसी बयानबाजी छोड़ रिसर्च में कूदना चाहिए, शायद पॉलिटिक्स में उतरकर उन्होंने गलत कदम उठा लिया है।
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इस लेख को विनय ने लिखा है. दर्शन के विद्यार्थी विनय बरेली से हैं और वर्तमान में सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं.
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