December 31, 2017
2017 चलते-चलते: साल के पांच उम्दा लेख, जिन्हें पढ़ते हुये समाज बदलने का मन होता है
1. ‘समाज सिर्फ सिक्युरिटी गार्ड्स और पुलिस के भरोसे नहीं चल सकता, आपसी भागीदारी भी बढ़ानी होती है.’ यह लेख हमारे स्वार्थी फैसलों पर हमला करता हैं जिनमें हम अपने हिस्से की दुनिया से दूसरों को खदेड़ देते हैं. नोएडा की ‘महागुन सोसाइटी’ में जब चोरी हुई तो सोसाइटी वालों ने यह फैसला लिया कि वह किसी भी काम वाली बाई को काम पर नहीं रखेंगे. अलगाव और नफरत में डूबकर लिए गए फैसले घातक होते हैं. इस लेख के शब्द वर्गचेतना के घमंड में डूबी हुई शहरीकरण की संस्कृति पर हमला हैं. जो अपनी ज़िंदगी का हगना-पोंछना तो बस्तियों के सहारे करती है. पर भूल जाती है कि सहअस्तित्व भी मानवीयता का एक पहलू है.
समाज सिर्फ सिक्योरिटी गार्ड और पुलिस के भरोसे नहीं चल सकता, आपसी भागीदारी भी बढ़ानी पड़ती है
2. ‘द डेविल इन द फाइन प्रिंट- पॉलिटिकल फंडिंग’ लेख दलालों जैसा रुख अपनाने वाली पार्टियों के कुकर्मों को छिपाने के लिए, इस साल के बजट में इलेक्टोरल रिफार्म पर अरुण जेटली ने गुगली फेंकी. इस गुगली की सब ने वाहवाही की. लेकिन इस गुगली पर ‘द हिन्दू’ में एक लेख छपा ‘ द डेविल इन द फाइन प्रिंट’. इस लेख ने इलेक्टोरल बांड के रूप में छुपे राक्षस को उभार दिया.
The devil is in the fine print
3. कदम-कदम पर नीतियां किसानों और श्रमिकों के हितों-हकों के ख़िलाफ़ हैं. यही राजनीतिक-आर्थिक सच्चाई है. जरा इस तथ्य पर गौर कीजिये कि खेती से जुड़े किसी भी काम को अकुशल श्रम माना जाता है, यही अपने आप में एक बेहद किसान विरोधी और असंवेदनशील नजरिया है. सरकारों को भी लगता है कि केवल मशीन चलाना या कम्प्यूटर पर गिट-पिट करना ही तकनीकी और विशेषज्ञता के काम हैं. कौन से उर्वरक-खाद डालने हैं, कब डालने हैं; क्या यह विशेषज्ञता का काम नहीं है? पांच या सोलह फसलों से एक साथ उपज कैसे ली जाये और जैविक सामग्री से खाद कैसे बनायी जाये; क्या यह गैर-तकनीकी और बिना बुद्धि के किये जाने वाले काम हैं? यह लेख सरकारों के सोच के भीतर किसानी के प्रति मौजूद दुराव को दर्शाता है.
क्या खेती करने में बुद्धि का इस्तेमाल नहीं होता?
4. 21वीं सदी में हम लोगों के लिए बस्तर जंगलों और आदिवासियों का इलाका होने के साथ-साथ सुरक्षा बलों और हथियारबंद विद्रोहियों की मौजूदगी वाला एक रक्तरंजित रणक्षेत्र भी है. देखा जाए तो यह अनुमानों पर आधारित भूदृश्य है. जब तक कोई व्यक्ति खुद छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में जाकर न देखे, तब तक हकीकत को समझना बहुत मुश्किल है. आदिवासियों से जुड़े हकीकत के द्वन्द को समझने के लिए यह लेख महत्वपूर्ण पड़ाव हो सकता है.
माओवादियों से इतर बस्तर
5. महाराष्ट्र सरकार ने दिसंबर की शुरुआत में 1314 स्कूलों को बंद करने का निर्णय लिया. इससे पहले उत्तराखंड भी हज़ारों स्कूलों को बंद कर चुकी थी. विनय का यह लेख शिक्षा के क्षेत्र में भारत की दशा का हाल मार्मिक तरीके से बयान करता है. इसे इसलिये तो पढ़ें ही ताकि भारत में शिक्षा की खराब हालत का अंदाज़ा हो सके और इसलिये भी कि सरकारों की मंशा सामने आ सके.
1314 स्कूल बंद करने वाले शिक्षामंत्री जी, क्या यह स्कूल आपके सर्वे में नहीं दिखे थे?
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